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देवता: इन्द्रः ऋषि: सुकक्ष आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

स꣢ न꣣ इ꣡न्द्रः꣢ शि꣣वः꣡ सखाश्वा꣢꣯व꣣द्गो꣢म꣣द्य꣡व꣢मत् । उ꣣रु꣡धा꣢रेव दोहते ॥१४५२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स न इन्द्रः शिवः सखाश्वावद्गोमद्यवमत् । उरुधारेव दोहते ॥१४५२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः꣢ । नः꣣ । इन्द्रः । शि꣡वः꣢꣯ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । अ꣡श्वा꣢꣯वत् । गो꣡म꣢꣯त् । य꣡व꣢꣯मत् । उ꣣रु꣡धा꣢रा । उ꣣रु꣢ । धा꣣रा । इव । दोहते ॥१४५२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1452 | (कौथोम) 6 » 3 » 4 » 3 | (रानायाणीय) 13 » 2 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह कहते हैं कि राजा प्रजाओं के लिए क्या करे।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सः) वह (नः) हमारा (शिवः) मङ्गलकारी, (सखा) मित्र (इन्द्रः) वीर राजा (अश्वावत्) घोड़ों से युक्त, (गोमत्) गायों से युक्त (यवमत्) जौ आदि अन्नों से युक्त धन को (दोहते) हमारे लिए दुह कर दे, (उरुधारा इव) जैसे मोटी धारोंवाली दुधारु गाय दूध देती है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

वही राजा होने योग्य है, जो प्रजाजनों को धन, धान्य, गाय, घोड़े आदि सम्पदाओं से समृद्ध कर सके, क्योंकि समृद्ध लोग ही अध्यात्म-मार्ग पर चलना चाहते हैं ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा की उपासना के तथा राजनीति के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ तेरहवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ राजा प्रजाभ्यः किं कुर्यादित्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सः) असौ (नः) अस्माकम् (शिवः) मङ्गलकरः (सखा) सुहृत् (इन्द्रः) वीरो राजा (अश्वावत्) अश्वयुक्तम्, (गोमत्) गोयुक्तम्, (यवमत्) यवाद्यन्नयुक्तं धनम् (दोहते) अस्मभ्यं दुह्यात्। कथमिव ? (उरुधारा इव) विस्तीर्णधारा धेनुर्यथा क्षीरं प्रयच्छति तद्वत् ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

स एव राजा भवितुमर्हति यः प्रजाजनान् धनधान्यगवाश्वादिभिः सम्पद्भिः समृद्धान् कुर्यात्, यतः समृद्धा एव जना अध्यात्ममार्गमीहन्ते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मोपासनाविषयस्य नृपनीतेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्बोध्या ॥